संजय शर्मा दरमोड़ा
उत्तराखंड मेरी मातृभूमि, मातृभूमि यो मेरी पितृभूमि,ओ भूमि तेरी जय जय कारा.. उत्तराखंड के जनकवि गिरीश तिवारी ‘गिर्दा’ की तरह ही उत्तराखंड मेरी भी जन्मभूमि है मेरी भी मातृभूमि है। जब मेरा जन्म हुआ था तब आज के रुद्रप्रयाग जिले का ‘दरम्वाडी’ गांव तबके उत्तर प्रदेश के नक्शे में तत्कालीन चमोली जिले में हुआ करता था। मानव योनि में जन्म लेना और वह भी बाबा केदार की पवित्र धरती पर जन्म लेना मैं अपना भाग्य समझता हूं। लेकिन कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक फैले हुए विविधताओं वाले अनेकता में एकता भारत की विशेषता वाली इस भारत भूमि में जन्म लेना मैं अपना सौभाग्य समझता हूं।
यद्यपि जन्म, मरण, लाभ, हानि, यश, अपयश सब विधि के हाथ है लेकिन मैं अपने आपको इस लिहाज़ से खुशकिस्मत मानता हूं कि ईश्वर ने मुझे प्रकृति की गोद में आंखें खोलने का अवसर दिया। दुनियादारी के लोक व्यवहार और तमाम अन्य संस्कार हमें घर-परिवार और स्कूल-काॅलेज से मिलते हैं लेकिन प्रकृति के सानिध्य में होने से हमें जो संस्कार मिलते हैं वह अपने आप में अद्भुत और अनुपम हैं।
जो संस्कार आपके और मेरे अंदर इस पर्वत प्रदेश में पैदा होने की वजह से विशेष रूप से निहित हैं समाहित हैं आइए आज मातृभूमि दिवस पर उन संस्कारों पर चर्चा करते हैं।
बचपन में जब भी कभी औडल या उरडू (आंधी-तूफान) आता था तो हम बच्चे देखते थे कि तूफान से कई पेड़ जड़ सहित उखड जाया करते थे। वहीं कई बहुत पुराने-पुराने पेड़ भी भयंकर तूफान की मार को सहते हुए अपनी जगहों पर अविचल खड़े रहते थे। दरअसल टूटते वही पेड़ थे जो तूफान के समय झुकते नहीं थे तने हुए रहते थे। वहीं फलदार वृक्ष अपने फलों की वजह से झुके रहते थे और तूफान की मार से बच जाते थे।
इन फलदार पेड़ों ने ही तो हम पहाड़वासियों को सिखाया कि विनम्रता में इंसान झुकता है और उदंडता में इंसान तनता है। जो इंसान विनम्रता में झुक गया तो वह आगे बढ़ गया और जो अहंकार में तन गया तो वह अपने अस्तित्व तक को खो बैठता है।
हमारी देवभूमि उत्तराखंड में तो पहाड़, प्रकृति और पर्यटन का अनूठा संगम है। पहाड़ी से गिरता हुआ झरना आंखों को मनभावन नजारा तो दिखाता ही है साथ ही दिल को सुकून भी देता है। लेकिन यह गिराता हुआ झरना हमें सिखाता है कि अगर लोक कल्याण के निमित इंसान को कभी गिरना भी पड़े तो उस झरने की तरह गिरो जिसके गिरने में भी एक सुंदरता है लोक को लुभाने की ताकत है, अदम्य शक्ति है।
बचपन के दिनों में हम चिमनियों, ढिबरियों, लैंप,लंपू और लालटेन की रोशनी में पढ़ाई किया करते थे। नरसिंग के ‘ठौ’ या ‘बिंयार’ में जलता दीपक देव स्थान को प्रदीप्त तो करता ही था साथ ही साथ वह पूरे कमरे या जगह को प्रकाशित करता था। उस दीपक से सीखा है हम पहाड़वासियों ने कि अगर जलना ही है तो उस दीपक की तरह से जलो जो खुद जलकर दूसरों को प्रकाश देता है।
गढ़वाली कुमाउनी वार्ता
समूह संपादक