भेल्लो जी भेल्लो।
गैड़ा की जीत खतड़ुवा की हार।
भाजो खतड़ुवा धारे धार।
गैड़ा पड़ो श्योव खतड़ुवा पड़ो भ्योव।
खतड़वा त्यौहार कब और क्यों मनाया जाता था,आज पीढ़ी को ये जानना भी चाहिए,
खतुड़वा त्यौहार के ठीक एक दिन पहले जंगल से कांस के पौधों को फूल सहित काटकर लाया जाते है, तब उसको एक बुड़िया (बूढ़ी महिला) की मानव आकृति में बनाया जाता है, और उसके गले में फूलों की मालाएं डालकर उसे घर थोड़ा दूर गोशाला के पास रख दिया जाता है।
इसी के साथ ही गांव के बच्चे गांव में किसी एक जगह पर जो गांव का केंद्र हो। वहां पर चीड़ या अन्य पेड़ की शाखाओं वाले वृक्ष को जंगल से काटकर लाते हैं। और वहां पर देते है,
कुमाऊं का विजयोत्सव माना जाने वाला यह त्यौहार वर्षाकाल की समाप्ति और शरद ऋतु के प्रारंभ में कन्या संक्रांति के दिन आश्विन माह की प्रथमा तिथि को हर्षोल्लास से मनाया जाता है।
“भेल्लो जी भेल्लो।
गैड़ा की जीत खतड़ुवा की हार।
भाजो खतड़ुवा धारे धार।
गैड़ा पड़ो श्योव खतड़ुवा पड़ो भ्योव।।”
उत्तराखंड में आजीविका का मुख्य स्रोत कृषि व पशुपालन है,आज भी पशुपालन व कृषि से सम्बंधित कई त्यौहार मनाए जाते हैं, उनमें से एक है-खतडुवा, जो कुमाऊँ मंडल में मनाया जाता है,जो आज है…
खतडुवा शब्द की उत्पत्ति खातड़ शब्द से हुई है,जिसका अर्थ है-रजाई या अन्य गर्म कपड़े….
मध्य सितंबर से पहाड़ो में धीरे-धीरे ठंडा (जाड़ा) शुरू हो जाता है,यही वक्त है जब पहाड़ के लोग गर्मियों के कपड़े निकालकर धूप में सूखाते हैं और पहनना शुरू करते हैं, इस तरह यह त्यौहार वर्षा ऋतु की समाप्ति के बाद शीत ऋतु के आगमन का परिचायक है..इस त्यौहार के दिन गांव में लोग अपने गौशाला को विशेष रूप से साफ करते हैं, पशुओं को नहला-धुला कर उनकी खास सफाई की जाती है,और पशुओं को दुःख बीमारी से दूर रखने के लिए भगवान की पूजा की जाती है या भगवान से पार्थना की जाती है…गाँव के बच्चे हो या बड़े लोग आदि एक जगह पर लकड़ी का बड़ा ढेर लगाते हैं, और उसे जलाते हैं….
खतडुवा में लोग एक-दूसरे को ककड़ी,अमरूद आदि चीज प्रसाद के रूप में देते हैं, पर मुख्य प्रसाद ककड़ी ही माना गया है……यह कुमाऊँ मंडल में ही मनाया जाता है…
गढ़वाली कुमाउनी वार्ता
समूह संपादक