संकलन और विचार
बद्रीश छाबड़ा
पहाड़ी सरदार
उत्तराखंड के गढ़वाल छेत्र में मनायी जाने वाली दीपावली का एक त्यौहार है ” बग्वाल” जिसमें पर्यावरण को नुकसान पहुँचाये बिना, प्राकृतिक रूप से मनाया जाता है ।
ईगास बग्वाल के अवसर पर बर्त खींचा जाता है( बर्त का अर्थ है मोटी रस्सी ) मुख्यतः यह बर्त बाबला, बबेड़ू या उलेंडू घास से बनाया जाता है (जो एक तरह से खरपतवार है )
ईगास बग्वाल के दिन भैला खेलने का विशिष्ठ रिवाज है। यह चीड़ की लीसायुक्त लकड़ी से बनाया जाता है। यह लकड़ी ज्वलनशील होती है। इसे दली या छिल्ला कहा जाता है। जहां चीड़ के जंगल न हों वहां लोग देवदार, भीमल या हींसर की लकड़ी आदि से भी भैलो बनाते हैं। इन लकड़ियों के छोटे-छोटे टुकड़ों को एक साथ रस्सी अथवा जंगली बेलों से बांधा जाता है। फिर इसे जला कर घुमाते हैं। इसे ही भैला खेलना कहा जाता है।
परंपरानुसार बग्वाल से कई दिन पहले गांव के लोग लकड़ी की दली, छिला, लेने ढोल-बाजों के साथ जंगल जाते हैं। जंगल से दली, छिल्ला, सुरमाड़ी, मालू अथवा दूसरी बेलें, जो कि भैलो को बांधने के काम आती है, इन सभी चीजों को गांव के किसी बड़े चौक में एकत्र करते हैं।
सुरमाड़ी, मालू की बेलां अथवा बाबला, स्येलू से बनी रस्सियों से दली और छिलो को बांध कर भैला बनाया जाता है। सार्वजनिक स्थान या पास के समतल खेतां में आस पास के गांव के लोग एकत्रित होकर ढोल-दमाऊं के साथ नाचते और भैला खेलते हैं। भैलो खेलते हुए अनेक मुद्राएं और नृत्य किया जाता है । भैलो खेलते हुए कुछ गीत गाने, व्यंग्य-मजाक करने की परम्परा भी है। यह सिर्फ हास्य विनोद के लिए किया जाता है। जैसे अगल-बगल या सामने के गांव वालों को रावण की सेना और खुद को राम की सेना मानते हुए मजाक की जाती हैं, कई तुक बंदियां की जाती हैं जो मनोरंजन के लिए होती है । जैसे- फलां गौं वाला रावण कि सेना, हम छना राम की सेना। निकटवर्ती गांवों के लोगों को गीतों के माध्यम से छेड़ा जाता है। नए-नए त्वरित गीत तैयार होते हैं।
इसमें चीड़ की लकड़ी जिसे बारीक फाड़कर एक छोटी गठ्ठी बनाकर, एक लम्बी मोटी बेल जो रस्सी नुमा होती है । (मेरे ज्ञान के अनुसार ये बेले उस समय मिट्टी के बने घरो को नुकसान पहुंचाती थी तो हमारे पुरखो ने इसे खत्म करने का एक सही तरीका निकला जिन से ये बेले और खरपातवतर को वो एक माह तक त्योहार में भेळो बना कर आम जनमानस से जलवाते यानी खत्म करते रहे और चीड़ की लकड़ी की छाल जो पेड़ से नीचे गिर कर जंगल मे आग का कारण बन सकती थी उसे हमारे पुरखो ने लोक त्यौहार से जोड़ कितना अच्छा किया ।वर्तमान समय मे यदि बेल नहीं मिलती फिर आगे धातु की तार से बाँधकर पिछे लम्बे रस्सी का ही प्रयोग करते हैं,)
इससे बाँधकर लकड़ी की गठ्ठी के दोनों सिरों पर अग्नि जलाकर इस प्रकार घुमाया जाता है जिससे अग्नि जलती रहे ओर स्वयं को बचाते हुए किसी दूसरे को भी नुकसान न पहुंचे,मानो दो योद्धा तलवार से युद्ध कर रहे हो सभी एक उचित दूरी पर रहकर इसे घुमाते है इसे भेला नाम से जाना जाता है
( मेरे ज्ञान के अनुसार लकड़ी की गठ्ठी का वजन तलवार के वजन के बराबर होता था क्योंकी राज्य का राजा इतना अमीर नही था इस तरह से हर नागरिको को तलवार उठाने का और तलवार बाजी का अनुभव हो जाता रहा होगा )
। जब सम्पूर्ण गांव वाले मिल कर रात्री में इसे जला कर नृत्य कर एक त्यौहार के रूप में मनाते रहे तो बग्वाल का जन्म हुआ ।
(मेरे ज्ञान के अनुसार पहाड़ के अलग अलग गावो में जब ये त्योहार एक माह तक मनाया जाने लगा तो गढ़वाल के राजा और तिब्बत की राजशाही को भी पता लग गया की पहाड़ो में दुर्गम स्थानों में भी जनता रहती है इससे गढ़वाल राज्य पर तिब्बत से आक्रमण बहुत कम हुऐ । और रात्री को इतने बडे आग के गोले इधर उधर घूमते देख आक्रमणकारियो को दहशत भी देता होगा । ) ।
दीपावली , इगास बग्वाल की बहुत बहुत शुभकामनाये और बधाई ।
संकलन और विचार
बद्रीश छाबड़ा
पहाड़ी सरदार
गढ़वाली कुमाउनी वार्ता
समूह संपादक