★नरेंद्र पिमोली★
इसे कहते हैं असली पर्य़ावरण विद
तस्वीरें बताती हैं कि न सिर्फ भारत बदला है बल्कि भारतीयों को सम्मान देने का उसका तरीका भी बदल गया है। पुरस्कार अब उनके लिए हैं जिन्होंने वास्तव में उन्हें अर्जित किया है। उसके साधकों को सम्मानित किया जा रहा है।
1- कर्नाटक की तुलसी गौड़ा हमेशा जंगलों में विचरण करती हैं। बारह साल की उम्र से हजारों पौधे लगाए। निरक्षर है पर जड़ी बूटियों पेड़ पौधों का अथाह ज्ञान । वनों का विश्वकोष हैं वो
2- हमेशा आदिवासी पोशाक में रहती हैं नंगे पांव चलती हैं। राष्ट्रपति भवन में भी आई तो पैर में चप्पल नहीं थे। न उन्हें इसकी परवाह कि लोग क्या कहेंगे।
3- उन्हें पता भी नहीं था कि किसी ने उनके लिए पद्म पुरस्कार के नाम की सिफारिश की। जब उन्हें बताया गया कि पद्म पुरस्कार मिलेगा दिल्ली में राष्ट्रपति भवन जाना है तो वह चौंक गईं।
4- वह आम लोगोें के बीच रहती आई हैं। सुख सुविधाओं से दूर उन्होंने अपने जीवन को सच्चे तौर पर प्रकृति के लिए समर्पित किया है।
5 उनके पास सामान्य सा कच्चा मकान हैं। जमा पूंजी भी ज्यादा नहीं। उनके गांव से सड़क भी बहुत दूर।
6- अब तक वह चालीस हजार से ज्यादा पेड़ लगा चुकी हैं।
7- वह लोगों को प्रोत्साहित करती रही हैं। वह हमेशा पर्यावरण के लिए समर्पित रही हैं। लेकिन न उनका एनजीओं हैं न ही कोई प्रोजेक्ट। उन्होंने सरकार से कभी भी किसी तरह की मदद नहीं ली। न वह किसी योजना से जुड़ी। उनका काम सादा निराला और अनूठा है। इसलिए राष्ट्र उन्हें नमन कर रहा है।
8- वह बच्चों को प्रकृति के बारे में बताती हैं। मीडिया की उन्हें दूर दूर तक ललक नहीं। जब कोई उनसे कुछ पूछता है तो शरमा जाती है। एक दो लाइन कहकर अपनी बात पूरी कर देती हैं। उन्हें छपास का शौक नहीं
9 – वह ममतामयी है। उन्होंने पूरा जीवन संघर्ष किया है।
10 उन्हें सेमीनारों की भूख नहीं प्रचारों की भूख नहीं। वह दिखावे से दूर हैं। कोई उन्हें देखे तो कह भी नहीं सकता कि वह सच्ची और इतनी बड़ी पर्यावरणविद है।
11- वह विदेश क्या बंगलूरू भी ठीक तरह से नहीं घूमी ।
— क्या तुलसी गौड़ा से उत्तराखंड के ऐसे दर्जनों पर्य़ावरण कुछ सीख लेंगे तो हमेशा फायलों को हाथ में लेकर अफसरों के चक्कर मारते हैं। मीडिया हाउस के बड़े बंडे संपादकों से रिश्ते बना कर रखते हैं । जिनके बड़े एनजीओं चल रहे हैं। जो लाइजनिंग करते हैं। जिनका एक पैर देश में दूसरा विदेश में रहता है। जो पहाड़ को बता नहीं पाते कि वास्तव में वह पर्यावरण के लिए कर क्या रहे हैं।
गढ़वाली कुमाउनी वार्ता
समूह संपादक