जय माँ कोट माई -: गाजे-बाजे के साथ मवाई से कदली वृक्ष लाए, माँ भगवती के डंगरिया व श्रद्धालु……नंदा अष्टमी विशेष.…

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नंदा अष्टमी पर्व पर कुमाऊं एवं गढ़वाल के कई क्षेत्रों में भव्य मेले का आयोजन एवं राजजात यात्रा का आयोजन किया जाता है।
देवभूमि में नंदा देवी मेला भाद्रपद माह की शुक्ल पक्ष षष्ठी तिथि से प्रारंभ होता है। इसी दिन मां नंदा की पूजा की जाती है। देवी का अवतार जिस पर होता है उसे देवी का डंगरिया कहा जाता है। मा नंदा की पूजा के लिए केले के वृक्षों से पर्वतनुमा मूर्तियों का निर्माण किया जाता है। केले के वृक्षों के चयन के लिए डंगरिया (देवी के विशेष उपासक) हाथ में जो और पुष्प लेकर उसे केले के वृक्षों की ओर फेंकते हैं। जिस वृक्ष पर स्वत: कंपन उत्पन्न होती है उसकी पूजा कर उसे मां के मंदिर में लाया जाता है। देवी की मूर्तियों के निर्माण का कार्य सप्तमी के दिन से प्रारंभ होता है। जबकि अष्टमी को मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा की जाती है। इस दौरान नंदा देवी परिसर में भव्य मेले का आयोजन भी किया जाता है। अष्टमी,नवमी, व दशमी की पूजा के बाद एकादशी तिथि को मां नंदा का विसर्जन किया जाएगा।

आज माँ कोट भ्रामरी से कदली वृक्ष लेने के लिए मवाई गांव गए और वहाँ से मेला डुगरी के लोग माँ भगवती के जयकारे लगाते हुवे कदली वृक्ष लाये,

कुमाऊं तथा गढ़वाल की सांझी विरासत का प्रतीक – नंदा देवी मेला,डंगोली कोट भ्रामरी
नंदा अष्टमी 23 सितंबर विशेष

प्रतिवर्ष भाद्रपद मास की शुक्लपक्ष की अष्टमी को कुमाऊं क्षेत्र के अल्मोड़ा व नैनीताल जिले में लगने वाला नंदा देवी मेला कुमाऊं तथा गढ़वाल दोनों की सांझी सांस्कृतिक विरासत, आस्था और पौरोणिक परंपराओं का प्रतीक है । आदिशक्ति मां भगवती के नवरूपो में मां नंदा कुमाऊं तथा गढ़वाल दोनों क्षेत्रो की अधिष्ठात्री देवी के रूप में समान रूप से पूजनीय है।

कोट भ्रामरी के परिसर में लगने वाला तीन दिवसीय मेला मां नंदा के लोक महत्व , इनसे जुड़ी राजवंशी परंपराओं , मां नंदा के जड़ तथा चेतन दोनों स्वरूपों के पोरौणिक महत्व , पूजन तथा आस्था का प्रतीक है।

माँ भगवती के परिसर में आयोजित होने वाले मेले का संबंध यद्यपि कुमाऊं के चंद्र राजवंश की परंपराओं से संबंधित है तथापि मंदिर में स्थापित मां नंदा की मूर्ति का संबंध गढ़वाल से है।

नंदा देवी की यह मूर्ति प्रारंभ में चमोली जनपद के सिद्ध पीठ करूड़ मे थी । यह स्थान नंदा मां का मायका माना जाता है । यहां से यह मूर्ति 1620 में बधारगणी के दक्षिणेश्वर काली मंदिर में विराजमान हुई।

1670 में जब कुमाऊं के चंद राजवंश के राजा राजा राज बहादुर सिंह द्वारा गढ़वाल में स्थित बधाणगढी किले मे आक्रमण किया गया तब विजय के पश्चात राजा मूर्ति को अल्मोड़ा लेकर आए और उसे मल्ला महल जो वर्तमान कचहरी है मे विधिवत स्थापित कराया ।

ऐसा माना जाता है की चंद्र राजवंश के राजा की की दो पुत्रियां नंदा और सुनंदा थी , जो मां भगवती के आशीर्वाद स्वरुप जन्मी मानी जाती है।

एक बार जब दोनों बहने जंगल के रास्ते जा रही थी, वहां एक भैंस से बचने के लिए दोनों कदली वृक्ष के पीछे छिप गई , वहीं से एक बकरी भी गुजर रही थी , उसने कदली वृक्ष के पत्ते खा लिए जिससे भैसे ने दोनों बहनों को देख लिया और उन पर आक्रमण कर दिया । उसके पश्चात दोनों बहनों की मृत्यु हो गई। यही कारण है कि मेले में अष्टमी के दिन मां की प्राण प्रतिष्ठा के पश्चात बकरी और भैंसे की बलि दी जाती है।

अल्मोड़ा और नैनीताल में नंदा देवी मेला इन दोनों लोक देवियो नंदा और सुनंदा के पूजन की परंपरा के रूप में प्रतिवर्ष आयोजित किया जाता है । मेले का प्रारंभ भाद्रपद शुक्ल पक्ष की पंचमी से ही प्रारंभ हो जाता है। हरेले के पर्व से यहां मंदिर परिसर में कदली वृक्ष का रोपण पूरे विधि विधान से किया जाता है । उसके पश्चात पूरे एक माह उसे दूध से सींचा जाता है ।
भादभद्र मास की शुक्ल अष्टमी को कदली स्तंभ से नंदा और सुनंदा की दो प्रतिमाएं बनाई जाती है। उसके पश्चात मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा तथा पूजन मंदिर के पुजारी तथा चंद्रवंश के प्रतिनिधियों से आरंभ किया जाता है । उसके पश्चात स्थानीय लोगो द्वारा पारंपरिक वेशभूषा में पूजा अर्चना, मांगलिक गीत तथा झोड़ा नृत्य इत्यादि किए जाते हैं । रात्रि में जागर के माध्यम से नंदा देवी की महिमा गाई जाती हैं।

मेले का मुख्य आकर्षण मां नंदा सुनंदा की डोला यात्रा है, जो पूरे शहर में जहां-जहां जाता है ,गहन आस्था तथा भावनाओं के साथ अद्भुत छटा लिए होता है । पारंपरिक वाद्य यंत्रों के साथ पारंपरिक नृत्य- गायन , तरह-तरह के साहसिक क्रिडाएं , अश्रुपुरण नेत्रो से मां नंदा को भावपूर्ण विदाई के साथ मेले का समापन मानो मां से अगले वर्ष दोबारा मायके आने की मनुहार कर रहा होता है।

संपूर्ण उत्तराखंड में मां नंदा का अस्तित्व कण-कण में व्याप्त है। एक और यहां के लोगों की मां नंदा में अगाध आस्था है वहीं दूसरी और मां नंदा के चैतन्य स्वरूप के साक्षात प्रमाण भी दिखाई देते हैं । ऐसा माना जाता है कि 1815 में अंग्रेजों और गोरखाओं के संघर्ष में जब मल्ला महल में स्थापित मां की मूर्ति क्षतिग्रस्त हो गई थी तब मेले की वर्षों पुरानी परंपरा टूट गई थी । तब यहां की स्थानीय जनता ने अंग्रेजों से दोबारा मां की मूर्ति स्थापना व मेले की शुरुआत का आग्रह किया लेकिन अंग्रेजों ने इस मांग को स्वीकार नहीं किया । इसी क्रम में जब कुमाऊं के अंग्रेज कमिश्नर विलियम ट्रैल की पिंडारी मिलम ग्लेशियर की यात्रा के दौरान नेत्रों की रोशनी चली गई तो माना जाता है इस वर्तमान मंदिर परिसर के निर्माण तथा मूर्ति स्थापना के पश्चात ही उनकी नेत्रों की रोशनी लौट आई । उसके पश्चात से यहां मां नंदा का मेला प्रतिवर्ष आयोजित किया जाने लगा।

जहां देश भर में धूमधाम से 23 सितंबर 2023 को राधा अष्टमी का पर्व मनाया जाएगा है , उसी दौरान उत्तराखंड में नंदा अष्टमी का यह पर्व कुमाऊं तथा गढ़वाल दोनों की सांझी विरासत और संस्कृति का प्रतीक मानकर विभिन्न स्थलों पर मेलों के रूप में धूमधाम से मनाया जाता है , जिसके साक्षी बनने के लिए लिए देश विदेश से सैलानी आते हैं और मां नंदा के जड़ और चेतन स्वरूप की सुखद अनुभूति लेकर लौटते हैं।

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