अपने उत्तराखंड में कब और कहाँ मनाया जाता भूत पर्व, कौन है,लखिया भूत, देखिए स्पेशल रिपोर्ट….

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गढ़वाली कुमाउँनी वार्ता आज आपको पहाड़ में होने वाले भूत मेले के बारे में बताएगा,मनाये जाने का उद्देश्य, मनाने का कारण या कब मनाया जाता है,

उत्तराखंड में लखिया भूत को देखने हजारों लोग पहुंचे। जब ये उग्र रुप में आकर नाचा तो लोगों ने इसे शांत करने की भी कोशिश की। यहां लोगों की मान्यता है कि भगवान शिव का परमप्रिय गण वीरभद्र जब लखिया रुप में आता है तो वह उग्र होकर भूत की तरह नाचने लगता है।
पिथौरागढ़ जनपद के सोर क्षेत्र में पिछले चार सौ सालों से आधा दर्जन स्थानों पर हिलजात्रा का मंचन होता आया है। इसमें कुमौड़ की हिलजात्रा सबसे चर्चित है। अन्य स्थानों पर इकोलिया बैल, हिरणचित्तल का प्रदर्शन होता है, परंतु कुमौड़ में लखिया पात्र के चलते यह विशेष हो जाती है।
कुमौड़ के महर उपजाति के लोग इसे मनाते हैं। हिलजात्रा तात्पर्य कीचड़ और कृषि से है। कीचड़ को ही हिल कहते हैं। रोपाई के दौरान खेतों में कीचड़ होता है। इस कारण इसका नाम हिलजात्रा पड़ा है। इसे उत्तर भारत के प्रमुख मुखौटा नृत्य का दर्जा मिल चुका है। इसका मंचन देश के विभिन्न शहरों में हो चुका है।
हिलजात्रा का मेला, शायद पिथौरागढ़ में रहे हर व्यक्ती ने इसमें शिरकत की होगी, कुमोड़ और बजेटी दो जगह होता है ये अद्भुत मुखोटा नृत्य, एक अद्भुत कार्यक्रम जिसे देखने भर से शरीर में रोंगटे खड़े हो जाते हैं। आप धार्मिक भावना से वशीभूत होकर देखो या एक सामन्य दर्शक की तरह देखो दोनों ही सिचुएशन में मजा बराबर आता है। ऐसा लगता है किसी दूसरी दुनिया का त्यौहार मना रहे हैं। एकदम अलग अनुभव। इसे मनाये जाने का उद्देश्य, मनाने का कारण या कब मनाया जाता है,

हिलजात्रा के प्रमुख पात्र लखिया के तेवरों को देखते हुए इसे लखिया भूत कहा जाता है परंतु ग्रामीण इसे भगवान शिव का सबसे प्रिय और बलवान गण वीरभद्र बताते हैं। उनका कहना है कि वीरभद्र अति बलवान गण था। उसकी शक्ति को देखते हुए दो गण उसके साथ चल कर उसे दोनों तरफ से रस्सियों से बांधे रहते थे। इसी कारण मंचन में यह मंचित किया जाता है।
किसी फसल से पहले गाँव की सुख शान्ती सम्पन्नता के लिए भगवान शिव के गण लखिया भूत का आह्वान किया जाता है जो किसी व्यक्ति के शरीर में अवतरित होकर सबको आशीर्वाद देता है। हिलजात्रा का मुख्य किरदार लखिया भूत , जिसके आने से पहले गलिया बल्द, किसान, हल बैल, पिछौड़ा ओढे महिलायें, खेतों में काम करने का स्वांग जैसी बहुत सी चीजें आन्दपुर्वक दिखाई जाती हैं। जैसे स्पेन में टमेटिनो फ़ेस्टिवल, या बुल रेस जैसे कार्यक्रम बिना किसी स्टेज के लोगों के बीच में मनाये जाते हैं वैसे ही हिलजात्रा भी बिना किसी स्टेज के लोगों के बीच में मनाया जाने वाला त्यौहार है। हर दर्शक कलाकार हर कलाकार दर्शक।

आजकल बकायदा माइक लगाकर हिलजात्रा मनाया जाता है जिसकी लाइव कमेंट्री कुमोड़ से चारों तरफ पहाड़ों में गूंजती रहती है। लेकिन मैंने जब पहली बार हिलजात्रा देखा था तब ना लाइव कमेंट्री थी ना वो मैदान में हिलजात्रा वाला भवन था, बस जबरदस्त भीड़ हाथ जोड़े छतों में कच्ची सड़कों पर खड़ी रहती है,

लखिया भूत के अवतरण के साथ ही माहौल में एक अजीब सी खामोशी आ जाती थी। दो बड़े बड़े मोटे मोटे पहलवान टाइप गण लखिया को संभालते थे, मुखोटा लगाए लखिया भूत कमर में रस्सियों से बंधा रहता है,
जिसे पहलवान संभाला करते। दोनों हाथों में पकडे चँवर से लोगों को आशीर्वाद देते हुए लखिया भूत पर चावल और फूल फेंके जाते है, चारों तरफ हाथ जोड़कर खड़े भक्तों को देखकर आपको यूं लगेगा जैसे मेले में नहीँ मंदिर में आए हो।

पूरी हिलजात्रा में जो बात नोट करने वाली होती, व है,वो है, कलाकारों के ऊपर मैकपमेन की मेहनत, इतना जबरदस्त मेकअप किया जाता था कि कई बार तो ऐसा लगता था कि किसी आदिवासी कबीले के आराध्य देव की मूर्ती देखते है…..
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