सामाजिक जीवन में एक इंसान को बहुत कुछ खोना पड़ता है. जो त्याग कर आगे बढ़ता है, विजय हासिल करता है. फिर उसकी पहचान जनता के बीच में एक नेता, एक योद्धा के रूप में होती. लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि मान-सम्मान, पावर, जिद, सत्ता समेत तमाम चीजों की लड़ाई में नेता बन चुका वह शख्स जो कुछ पीछे छोड़ आया है, क्या उसकी उसे याद भी आती होगी? शायद आती हो, लेकिन वह यह दर्द किसके सामने बयां करें? अगर कभी अपने अंदर छिपी बात किसी से कहने का मन करे तो क्या उसे उसी जनता से डर लगता है जिनका वह नेता है, लीडर है.
हजारों की भीड़ से रोज गुजरना. सुनने का मन हो या न हो, लेकिन दुनियाभर की तकलीफें सुनना. न चाहकर भी चेहरे पर हंसी लाना. ये सब करते-करते शायद एक नेता भूल जाता होगा कि उसने कुछ खोया भी है.
कुछ अच्छी यादों के साथ बचपन बीता, संघर्ष में जवानी गई और अब बुढापा. कहते हैं कि बचपन और बुढ़ापे की भावनाओं में कुछ ज्यादा फर्क नहीं होता. इस समय इंसान चाहे बड़े से बड़ा नेता ही क्यों न हो वह मोह खोजने लगता है. अपनों से मिले तो ठीक, नहीं तो राह चलते-चलते ही सही. फिर अगर कभी बचपन का कोई शख्स मिल जाए, अपना खास ही मिल जाए ,जो भीड़ के बीच देखकर भी अंदर से उसे अकेला देख रहा है तो ऐसे में आंखों से आंसू छलकना जाहिर सी बात है.
हम भारतीयों में भावनाओं का विशेष महत्व होता है.दुनिया के सबसे अधिक इमोशनल लोगों की रैंकिंग निकाली जाए तो हम जरूर पहले नंबर पर होंगे. यहां हर एक मां,एक बहन का सपना होता है कि उसके बेटे का, भाई का परिवार खूब फले फूले. वे चाहती हैं कि उसका भाई दुनिया का सबसे सफल इंसान बने, लेकिन वह कभी अकेला न रहे. मन से अकेला न रहे. अगर ऐसा हो गया तो यह दुख उस इंसान को हो या न हो, पर उस मां या बहन को जरूर होता है.
कल रात सोशल मीडिया पर एक तस्वीर देखी.जिसमें एक नेता वर्षों बाद अपनी बहन के घर रक्षा बंधन के दिन राखी बंधवाने पहुंचा.तस्वीरें बेहद भावुक करने वाली थी. भाई को वर्षों बाद रक्षाबंधन पर्व पर देखकर बहन आंसू छलका रही थी, लेकिन ये आंसू सिर्फ इस बात पर नहीं थे कि भाई रक्षा बंधन पर नहीं आता.बल्कि ये आंसू थे भाई के अंदर दिखाई देते अकेलेपन के. जो उसके अंदर एक बहन देख पा रही थी. परिवार होना एक वंश को बढ़ाना ही नहीं होता. परिवार अपने भावनाओं को, अपने अंदर समेटे दुनियाभर के इल्मों को उजागर करने का इकलौता जरिया होता है.हालांकि भाई ने दुनिया जीत ली है.खूब नाम कमाया है. फिर भी उसकी बहन को उसके परिवार न होने का दुख जरूर है.वह कहना चाहती होगी कि सब कुछ तो पा ही लिया था ‘भगत’ बस एक परिवार भी बना लेता.
अब इस भावों से भरे क्षण में कुछ बचपन की बातें भी हुई होंगी. जो पीछे छूट गए उनका जिक्र भी हुआ होगा.सुख-दुख की स्लेट पर भावनाओं की स्याही से कुछ शब्द भी अंकित हुए होंगे.बचपन और बढ़ापे के सफर में जो पीछे छूटा उसे भी बहन याद दिला रही होगी. भाई, बहिन को कह भी रहा होगा कि छोड़ जो हुआ सब बढ़िया हुआ. जिंदगी संघर्ष में शानदार बीती आगे भी ठीक ही होगा. लेकिन ये लब्ज बहिन के मन की पीड़ा को कम नहीं कर पाए होंगे.
ये मेरी अपनी भावनाएं हैं. किसी की भावनाओं को आहत करने के उद्देश्य यह लेख नहीं लिखा गया है. अगर इस लेख से किसी की भावनाएं आहत होती है तो मैं क्षमा याची हूं
नरेश कोश्यारी की कलम से

गढ़वाली कुमाउनी वार्ता
समूह संपादक