साल का पहला त्यौहार उत्तरायणी, और घुघुतिया, को लेकर बड़ी खबर

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नरेंद्र पिमोली देहरादून

बागेश्वर और कपकोट में आयोजित होने वाला धार्मिक, पौराणिक व ऐतिहासिक उत्तरायणी मेला-2021 के आयोजन की रूपरेखा के संबंध में जिलाधिकारी  ने कोविड-19 के कारण इस बार का उत्तरायणी मेला पिछले वर्षो की तरह भव्य स्वरूप में आयोजित नहीं होगा। इसमें चिन्हित स्थानों पर केवल धार्मिक अनुष्ठान के साथ गंगा स्नान व जनेऊ संस्कार ही किए जा सकेंगे। बैठक में जिलाधिकारी ने संबंधित अधिकारियों को मेले में आयोजित होने वाले धार्मिक अनुष्ठान के लिए सभी व्यापक व्यवस्थाएं समय से सुनिश्चित करने के निर्देश दिए।

‘घुघुतिया’ त्यौहार
पक्षियों के प्रति सौहार्द भाव का लोकपर्व॥
कुमाउं उत्तराखण्ड में मकर संक्रान्ति का पर्व ‘उत्तरायणी या ‘घुघुती त्यौहार के रूप में मनाया जाता है और काले कौए को इस दिन घुघुते, खजूर के पकवान खाने के लिए विशेष अतिथि के रूप में बुलाया जाता है।बच्चे मकर संक्रांति के दिन घुघुतों की माला अपने गले में डाल कर कौवे को बुलाते हैं और कहते हैं –

“काले कव्वा काले ! घुघुते माला खाले!।।
“लै कावा भात में कै दे सुनक थात”।।
“लै कावा लगड़ में कै दे भै बैंनू दगड़”।।
“लै कावा बौड़ मेंकै दे सुनौक घ्वड़”।।
कभी कोई जमाना था जब दुहरी-तिहरी घुघुतों की माला पहने हर पहाड़ी बालक हो या वृद्ध या महिला कौवों को बुलाकर ‘उत्तरायणी त्योहार का स्वागत किया करते थे पर अब इसकी लोक परंपरा धीरे धीरे लुप्त होती जा रही है और पहाड़ के कौए भी उत्तरायणी के दिन निराश होकर चले जाते हैं कि जिन मकानों से उनको इस दिन घुघुते-बड़े खाने को मिलते थे वहां ताले लटके हैं। वहां के स्वामी अपने रोजगार के लिए घर छोड़ कर पलायन करके चले गए हैं तो अब कहां से मिलेगा उन्हें खाने को घुघुते और बड़े जिससे कि वे उन गृहस्वामियों को उन्हें सोने के घड़े का उपहार दे सकें। यह चिंता की बात है कि हम आज न केवल पहाड़ से बल्कि उस अपनी हिमालयीय विराट् लोक संस्कृति से भी दूर होते जा रहे हैं जिसमें एक कौए जैसे पक्षी के लिए भी अत्यंत आत्मीयता के बोल बोले जाते हैं। घुघुती हो या कौआ प्रकृति की गोद में विचरण करने वाले इन पक्षियों के रचना संसार से ही उत्तरायणी जैसी पहाड़ की लोक संस्कृति को नव जीवन मिलता है।

घुघुतिया पर्व के बारे में प्रचलित जनश्रुति
कुमाऊं की वादियों में प्रचलित एक स्थानीय जनश्रुति के अनुसार कुमाऊं के चंदवंशीय राजा कल्याण चंद को बागेश्वर में भगवान बागनाथ की तपस्या के उपरांत राज्य का इकलौता उत्तराधिकारी पुत्र निर्भय चंद प्राप्त हुआ था, जिसे रानी प्यार से ‘घुघुती’ कहती थी। ‘घुघुती’ पर्वतीय इलाके के एक पक्षी को कहा जाता है। राजा का यह पुत्र भी एक पक्षी की तरह उसकी आँखों का तारा था उस बच्चे के साथ कौवों का विशेष लगाव रहता था। बच्चे को जब खाना दिया जाता था तो वह कौवे उसके आस पास रहते थे और उसको दिए जाने वाले भोजन से वे अपनी भूख मिटाया करते थे। एक बार राजा के मंत्री ने षड़यंत्र रच कर राज्य प्राप्त करने की नीयत से ‘घुघुती’ का अपहरण कर लिया। वह उस मासूम बच्चे को जंगलो में फैंक आया। पर मित्र कौवे वहां भी उस बच्चे की मदद करते रहे। इधर राजमहल से बच्चे का अपहरण होने से राजा बहुत परेशान हुआ। कोई गुप्तचर यह पता नही लगा सका आखिर ‘घुघुती’ कहां चला गया ? तभी रानी की निगाह एक कौवे पर पड़ी। वह बार बार कहीं उड़ता था और वापस राजमहल में आकर कांव कांव करता था। उसी समय कौवा ‘घुघुती’ के गले में पड़ी मोतियों की माला को राजमहल में ले आया। इससे रानी को पुत्र की कुशलता का संकेत मिला और रानी ने यह बात राजा को बताई।उस कौवे का पीछा करने पर राजा का पुत्र जंगल में मिल गया जहां पर उसके चारों ओर कौवे उस बच्चे की रक्षा कर रहे थे।

प्रति वर्ष ‘उत्तरायणी’ के दिन ‘घुघुतिया  कौए आदि पक्षियों से प्रेम करने का संदेश देने वाले इस ‘घुघुतिया ’ त्यौहार की परम्परा आज भी कुमाऊ अंचल में जीवित है।

कुमाऊँ के अल्मोड़ा, चम्पावत, नैनीताल तथा उधमसिंह नगर जनपदीय क्षेत्रों में मकर संक्रान्ति को माघ मास के 1 गते को घुघुते बनाये जाते हैं और अगली सुबह 2 गते माघ को कौवे को दिये जाते हैं । वहीं रामगंगा पार के पिथौरागढ़ और बागेश्वर अंचल में मकर संक्रान्ति की पूर्व संध्या यानी पौष मास के अंतिम दिन अर्थात मासान्त को ही घुघुते बनाये जाते हैं और मकर संक्रान्ति अर्थात माघ 1 गते को कौवे को खिलाये जाते हैं। इसके बाद रिश्तेदारों तथा मित्रगणों के घर-घर घुघुते बांटने का सिलसिला शुरू होता है । जो सदस्य घर से दूर रहते हैं उनके लिए घुघुते पार्सल और कोरियर के माध्यम से भी भेजे जा सकते हैं। घुघुतिया के दिन घुघुते बनाने के बाद इनको दुबारा बसन्त पंचमी तक बनाया जा सकता है।

कौओं के प्रति सौहार्दभाव का पर्व
भारत में पशु पक्षियों से सम्बंधित कई पर्व मनाये जाते हैं पर कौओं के प्रति सौहार्द प्रकट करने वाले इस अनोखे त्यौहार को मनाने की प्रथा केवल उत्तराखण्ड के कुमाऊँ अंचल में ही प्रचलित है। वैसे कौए की चतुराई के बारे में कहावत है कि पक्षियों में कौआ सबसे बुद्धिमान होता है। कौए की चतुराई के बारे में कई वैज्ञानिक शोधों से भी यह सिद्ध हो चुका है कि कौए का मष्तिष्क अन्य पशु-पक्षियों से अधिक विकसित होता है। यह उत्तराखण्ड वासियों के लिए चिंता की बात है कि आज हम अपनी लोक संस्कृति से दूर होते जा रहे है

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