अलबेरा बिखौती म्यरि दुर्गा हरै गे, सार कौतिका चानैं म्यरि कमरै पटै गे…उत्तराखंड के कुमाऊं में इस तरह मनाया जाता है बैसाखी, जानिए इन परंपराओं के बारे में

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द्वाराहाट की पौराणिक,सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विरासत स्याल्दे बिखोती मेला,

उत्तराखंड के कुमाऊं में इस तरह मनाया जाता है बैसाखी, जानिए इन परंपराओं के बारे में

कौतिक की शुरुआत कत्यूरकाल से ही मानी गई है। झोड़ा, चांचरी, भगनौल आदि का उद्भव भी उसी दौर में हुआ। आजादी की लड़ाई के दौरान स्याल्दे बिखौती के मेले में बने झोड़ा गीतों से क्रांतिकारियों में नई ऊर्जा भरी जाती थी। आजादी के बाद तक रानीखेत, अल्मोड़ा, बागेश्वर व भाबर से लोग बिखौती में आते थे। यह हमारी धरोहर है। इसे जीवंत रखने के लिए सरकार को भी प्रयास करने चाहिए।

पौराणिक द्वारका यानि द्वाराहाट का ऐतिहासिक स्याल्दे बिखौती कौतिक। कत्यूरकालीन सभ्यता संस्कृति के गवाह इस मेले की शान आल और नौज्यूला धड़े में कुमाऊं के 31 परगने व गढ़देश गढ़वाल समेत 500 से ज्यादा ग्राम पंचायतें अभिन्न हिस्सा रही है,

कोथिक हो या गांव में छोटा बड़ा मेला परंपरा देवभूमि उत्तराखंड की विशिष्ट पहचान रहती है। कई मेले महज रस्मअदायगी तक सिमट गए हैं तो कुछ को बुजुर्गवार संस्कृतिप्रेमी धरोहर की भांति सहेज युवा पीढ़ी को जोड़ने में जुटे हैं। इन्हीं में एक है पौराणिक द्वारका यानि द्वाराहाट का ऐतिहासिक स्याल्दे बिखौती कौतिक। कत्यूरकालीन सभ्यता संस्कृति के गवाह इस मेले की शान आल और नौज्यूला धड़े में कुमाऊं के 31 परगने व गढ़देश (गढ़वाल) समेत 500 से ज्यादा ग्राम पंचायतें अभिन्न हिस्सा थीं। आल धड़ा अल्मोड़ा व कत्यूरघाटी (गरुड़) जबकि नौज्यूला धड़ा रामनगर व हल्द्वानी के गांवों को समेटे था। स्वतंत्रता आंदोलन में यहां बने झोड़ा गीत क्रांतिवीरों को नई ताकत देते रहे।

पौराणिक द्वारका यानि द्वाराहाट में स्याल्दे बिखौती कौतिक की परंपरा कत्यूरकाल से शुरू हो गई थी। कथानक के अनुसार लोक संस्कृति व परंपरा के पैरोकार रहे कत्यूरी राजा सालदेव की अगुआई में स्याल्दे मेले का श्रीगणेश हुआ। स्याल्दे पोखर (वर्तमान शीतला पुष्कर मैदान) भी राजा सालदेव की ही देन है। मेले से पूर्व महास्नान की परंपरा भी उन्होंने ही शुरू की थी। पुराना गौरव लाने में जुटे संस्कृति कर्मी

मंदिरों की नगरी द्वाराहाट के पूरब दिशा में खिरो नदी के बाए भूभाग में अल्मोड़ा व कत्यूरघाटी आल धड़ा और पश्चिम में सल्ट, स्याल्दे, रामनगर व हल्द्वानी के गांव समाहित थे। वहीं पश्चिम दिशा में चौखुयिा, सल्ट व स्याल्दे ही नहीं नौज्यूला धड़े में रामनगर व हल्द्वानी के गांव जुड़े थे। संस्कृति प्रेमी अब इस ऐतिहासिक मेले को उसका पुराना गौरव दिलाने में जुट गए हैं। पलक झपकते ही रचे जाते हैं

अलबेरा बिखौती म्यरि दुर्गा हरै गे,
सार कौतिका चा नैं म्यरि कमरै पटै गे।।
कुमाऊं के मशहूर लोकगायक गोपाल बाबू गोस्वामी ने द्वाराहाट में लगने वाले स्याल्दे बिखौती के कौतिक में सुदूर गांवों से आने वाली भारी भीड़ का उल्लेख किया है। इस भीड़ में वो पहाड़ी परिवेश में सजी-धजी अपनी दुर्गा के गुम होने का बखान करते हैं। आज इसी स्याल्दे बिखौती को राज्य मेले के रूप में मान्यता मिल चुकी है। कुमाऊं के पाली पछाऊं में यह मेला बैसाखी के दिन लगता है। कुमाऊं के दूर-दूर के गांवों से महिलाएं और पुरुष पारंपरिक पहनावे में आते हैं। निशाण फहराते हुए पहाड़ी गाजे-बाजे में नाचते-गाते मेला स्थल पर पहुंचते हैं। झोड़े, चांचरी, छपेली और भगनौल की धूम रहती हैं।

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