कुमाऊं में पशुओं की रक्षा के लिए मनाए जाने वाले खतड़वा_पर्व (खतड़ू )
खतड़वा पर्व मुख्यत शीत ऋतु के आगमन के प्रतीक जाड़े से रक्षा की कामना तथा पशुओं की रोगों और ठंड से रक्षा की कामना के रूप में मनाया जाता है। कुछ लोक कथाओं के अनुसार खतड़वा पर्व को कुमाऊँ मंडल के लोग अपने सेनापति अपने राजा की विजय की खुशी में मनाते हैं। पहले जमाने मे संचार के साधन नही थे, उस समय ऊँची ऊँची चोटियों पर आग जला कर संदेश प्रसारित किए जाते थे। संयोगवश अश्विन संक्रांति किसी राजा की विजय हुई हो या ऊँची चोटियों पर आग जला के संदेश पहुचाया हो, और लोगो ने इसे खतड़वा त्यौहार के साथ जोड़ दिया। खतरूवा पर्व प्रत्येक वर्ष अश्विन संक्रांति को मनाया जाता है। अश्विन मास में पहाड़ों में खेती के काम की मार मार पड़ी रहती है। खतड़वा के दिन सुबह साफ सफाई, देलि और कमरों की लिपाई की जाती है। दिन में पूजा पाठ करके, पारम्परिक पहाड़ी व्यजंनों का आनन्द लेते हैं। क्योंकि अश्विन में काम ज्यादा होने के कारण , घर मे बड़े लोग काम मे बिजी रहते हैं। और खतड़वा के डंक ( डंडे जिनसे आग को पीटते हैं ) बनाने और सजाने की जिम्मेदारी घर के बच्चों की होती है। घर मे जितने आदमी होते है ,उतने डंडे बनाये जाते हैं। उन डंडों को कांस की घास के साथ उसमे अलग अलग फूलों से सजाते हैं। खतरूवा के डंडों के लिए, कास की घास और गुलपांग के फूल जरूरी माने जाते हैं। महिलाये गाय के गोशाले को साफ करके वहाँ नरम नरम घास डालती है। और गायों को आशीष गीत गाकर खतड़ुवा की शुभकामनायें देती है
दूर दूर गधेरों पर्वतों से तेरे लिए अच्छी घास लाऊंगी ,बस तू सुखी सलामत रहे। तेरा मालिक सलामत रहे। एक गाय से पूरी गौशाला खुशहाल हो जाय। और तेरे मालिक का घर भी खुशहाल रहे। खतड़वा के दिन पहाड़ी ककड़ी का विशेष महत्व होता है। क्योंकि पहाड़ी ककड़ी खतडुवा पर्व के दिन प्रसाद के रूप में एक दूसरे को देते हैं। इसके लिए ककड़ी को एक दो दिन पहले से ही चयनित कर लिया जाता है। खतडूवा मनाने वाले स्थान पर सुखी घास पूस इकट्ठा कर टीला सा बना दिया जाता है। अब समय आता है, खतड़वा, भैलो मनाने का, चीड़ के लकड़ी की मशाल छिलुक जला कर ,खतड़वा के डंडों को गौशाले के अंदर से घुमा कर लाते हैं,और यह कामना की जाती है, कि आने वाली शीत ऋतु हमारे पशुओं के लिए अच्छी रहे और रोग दोषों से उनकी रक्षा हो।
फिर उन डंडों को लेकर और साथ मे ककड़ी भी लेकर उस स्थान पर पर पहुँचा जाता है, जहाँ सुखी घास रखी होती है। उसके बाद सुखी घास में आग लगाकर ,उसे डंडों से पीटते हैं। और कुमाऊनी भाषा मे ये खतरुआ पर गीत गाये जाते हैं।
गढ़वाली कुमाउनी वार्ता
समूह संपादक