फूल फूलदेई -: बच्चों का त्यौहार- फ्योंली व बुरांस के फूल शंख बजाकर फूलदेई लोकपर्व को मनाते हैं मेरे पहाड़ में बच्चे…

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बसन्त ऋतु के आगमन के साथ ही चैत्र मास के पहले दिन से शुरू होने वाला उत्तराखंड का लोकपर्व फूलदेई हमें याद दिलाता है कि प्रकृति के बिना इंसान का अस्तित्व नहीं है. सदियों से पहाड़ के बच्चों में फूलदेई पर्व के जरिए उनमें यही संस्कार डाला जा रहा है कि प्रकृति मां स्वरूप है. फूलदेई पर्व को देखने के लिए दूर-दूर से पर्यटक गांव-गांव पहुंच रहे हैं. आइए देखते हैं प्रकृति के सानिध्य में मनाए जा रहे इस अनोखे लोकपर्व को

उत्तराखंड की सांस्कृतिक परम्परा ,प्रकृति से जुड़ाव के प्रतीक फूलदेई ,फूल संक्राद की आप को परिवार सहित हार्दिक बधाई व शुभकामनाएँ फूलदेई को फुलदेई, छम्मा देई, दैणी द्वार, फूल संक्रांति तथा फूल संग्राद आदि नामो से जाना जाता है। सबसे प्रसिद्ध संक्रांति त्यौहार मकर संक्रांति प्रायः 14 जनवरी के दिन ही होता है। फूलदेई पर्व प्रकृति के प्रति हमारे अनुराग व सम्मान को भी दर्शाता है ,संक्रांति के दिन होने के कारण यह फूलदेई त्यौहार प्रत्येक वर्ष 14 मार्च अथवा 15 मार्च के दिन ही होता है।

*फूलदेई पर्व *
आप सभी धर्म प्रेमियों को सादर प्रणाम आप सभी को अवगत कराना चाहूंगी कि 14 मार्च दिन सोमवार को उत्तराखंड का लोकपर्व फूलदेई का त्यौहार मनाया जाएगा।

 

आइए जानते हैं फूलदेई का महत्व व कहानी

देवभूमि उत्तराखंड की लोक संस्कृति धर्म और प्रकृति का अद्भुत स्वरूप है जहाँ वर्ष के सभी महीनों में कोई न कोई त्यौहार मनाया जाता है उन्हीं त्यौहारों में से एक विशेष त्यौहार है “फूलदेई” जिसे उत्तराखंड के सम्पूर्ण पर्वतांचल में हर्ष और उल्लास के साथ मनाया जाता है। प्रकृति को आभार प्रकट करने वाला लोकपर्व है ‘फूलदेई’
चैत्र माह की संक्रांति को, जब ऊंची पहाड़ियों से बर्फ पिघल जाती है, सर्दियों के मुश्किल दिन बीत जाते हैं, उत्तराखंड के पहाड़ बुरांश के लाल फूलों की चादर ओढ़ने लगते हैं, तब पूरे इलाके की खुशहाली के लिए फूलदेई का त्योहार मनाया जाता है। सर्दी और गर्मी के बीच का खूबसूरत मौसम, फ्यूंली, बुरांश और बासिंग के पीले, लाल, सफेद फूल और बच्चों के खिले हुए चेहरे… ‘फूलदेई’ के पर्व की विशेषता है। नए साल का, नई ऋतुओं का, नए फूलों के आने का संदेश लाने वाला ये त्योहार आज उत्तराखंड के गांवों और कस्बों में मनाया जा रहा है। ये त्योहार आमतौर पर किशोरी लड़कियों और छोटे बच्चों का पर्व है।वक्त के साथ तरीके बदले, लेकिन हम सभी को प्रयास करना चाहिए कि अपनी संस्कृति को जिंदा रखें व बढ़ावा दें व लोगों को जागरूक करें। फूलदेई के दिन लड़कियां और बच्चे सुबह-सुबह उठकर फ्यूंली, बुरांश, बासिंग और कचनार जैसे जंगली फूल इकट्ठा करते हैं। इन फूलों को थाली या टोकरी में सजाया जाता है। टोकरी में फूलों-पत्तों के साथ गुड़, चावल, पैसे और नारियल रखकर बच्चे अपने गांव और मुहल्ले की ओर निकल जाते हैं फूल और चावलों को गांव के घर की देहरी, यानी मुख्यद्वार पर डालकर लड़कियां उस घर की खुशहाली की कामना करती हैं। इस दौरान एक गाना भी गाया जाता है- फूलदेई, छम्मा देई….दैणी द्वार, भरे भकार…. यो देई पूजूं बारम्बार
एक बार भगवान शिव अपनी शीतकालीन तपस्या में लीन हुए तो कई बर्ष बीत गए और ऋतुएं परिवर्तित होती रही लेकिन भगवान शिव जी की तंद्रा नहीं टूटी जिस कारण माँ पार्वती और नंदी आदि शिव गण कैलाश में नीरसता का अनुभव करने लगे, तब माता पार्वती जी ने भोलेनाथ जी की तंद्रा तोड़ने की एक अनोखी तरकीव निकाली। जैसे ही कैलाश में फ्योली के पीले फूल खिलने लगे माता पार्वती ने सभी शिव गणों को प्योली के फूलों से निर्मित पीताम्बरी जामा पहनाकर सबको छोटे-छोटे बच्चों का स्वरुप दिया और फिर सभी शिव गणों से कहा कि वे लोग देवताओं की पुष्पवाटिकाओं से ऐसे सुगंधित पुष्प चुन लायें जिनकी खुशबू पूरे कैलाश में फैल जाए। माता पार्वती की आज्ञा का पालन करते हुए सबने वैसा ही किया और सबसे पहले पुष्प भगवान शिव के तंद्रालीन स्वरूप को अर्पित किये जिसे “फूललदेई” कहा गया। साथ में सभी शिव गण एक सुर में गाने लगे “फूलदेई क्षमा देई” ताकि महादेव जी तपस्या में बाधा डालने के लिए उन्हें क्षमा कर दें। बालस्वरूप शिवगणों के समूह स्वर की तीव्रता से भगवान शिव की तंद्रा टूट पड़ी परन्तु बच्चों को देखकर उन्हें क्रोध नहीं आया और वे भी प्रसन्न होकर फूलों की क्रीड़ा में शामिल हो गए और कैलाश में उल्लास का वातावरण छा गया। मान्यता है कि उस दिन मीन संक्रांति का दिन था तभी से उत्तराखंड के पर्वतीय अंचल में “फूलदेई” को लोक-पर्व के रूप में हर्षोल्लास के साथ मनाया जाने लगा, जिसे बच्चों का त्यौहार भी कहा जाता है।

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