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‘श्री’ क्षेत्र श्रीनगर

ऋषिकेश से 109 कि०मी० दूर श्रीनगर समुद्रतल से 572 मी० की ऊँचाई पर स्थित है। माना जाता है कि यहाँ सतयुग में सत्यसन्धु नाम के राजा का राज्य था। राज्य में कोलासुर नाम के दैत्य का आतंक था जिससे राजा परेशान रहता था। राज्य की सुरक्षा के लिए राजा ने दुर्गा की पूजा शक्ति रूप में की। महामाया दुर्गा ने दर्शन देकर राजा को शक्ति दी जिससे तुरंत राजा ने कोलासुर दैत्य का वध कर दिया (केदारखंड 178ः121)। कालांतर में आसपास यह धारणा पैदा होती गई कि जो प्रातः उस शिला पर जिसमें कोलासुर का वध किया गया था, नजर डालेगा वह वहीं मृत्यु को प्राप्त हो जाएगा। उस शिला को श्रीयंत्र तथा इस क्षेत्र को श्री क्षेत्र कहा जाने लगा। नौवीं सदी में शंकराचार्य के आगमन पर उन्होंने इस क्षेत्र की जनता को परेशान देखकर वह श्रीयंत्र उल्टा कर नदी में फेंक दिया। आज भी श्रीनगर-कीर्तिनगर के बीच उफल्डा के सामने नदी के बीच में इसे माना जाता है। महाभारत (व०प० 140ः25) में वर्णित है कि श्रीपुर (श्रीनगर) राजा सुबाहू की राजधानी थी।

श्रीनगर भी दिल्ली की तरह कई बार उजड़ा तथा कई बार बसा। सन् 1500 के आसपास यह पंवारवंशीय राजा अजयपाल जो गढ़वाल के नरेश थे, की राजधानी बना। कई भौतिक आपदाओं को झेलता यह नगर 8 सितम्बर 1803 के भयंकर भूकंप के कारण ध्वस्त हो गया। मई 1804 ई० में गोरखाओं के आक्रमण से श्रीनगर सहित समस्त गढ़वाल गोरखाओं के आधिपत्य में आ गया। सन् 1815 तक यह गोरखाओं की राजधानी रहा। गोरखाओं के पश्चात् यह क्षेत्र स्वतंत्रता प्राप्ति तक ब्रिटिश गढ़वाल के अधीन रहा।

25 अगस्त 1894 में गौणाताल (चमोली के पास) टूटने से अलकनंदा में बाढ़ आ गई। तीव्र जल बहाव के कारण कीर्तिनगर से पहले वाली पहाड़ी के टूटकर नदी में गिर जाने से बांध बन गया। इस झील में श्रीनगर का शहरी क्षेत्र जलमग्न हो गया। एटकिंसन ने इससे पूर्व भी (तिथि नहीं दी है) एक भयंकर बाढ़ से श्रीनगर के बहने का वर्णन किया है। सन् 1896 में पुनः श्रीनगर को उत्तरी क्षेत्र में बसाया गया। इन कई प्राकृतिक आपदाओं के कारण यह नगर अपनी संस्कृति व ऐतिहासिक पहचान खोता गया। गढ़वाल के इतिहास की महत्वपूर्ण जानकारियाँ यहाँ समय-समय पर दफन होती गईं। श्रीनगर वर्तमान में पुनः गढ़वाल का समृद्ध नगर बन गया है। उत्तराखंड का एक मात्र केंद्रीय विश्वविद्यालय यहीं है।

4 कि०मी० क्षेत्र पर फैले श्रीनगर में मुख्य रूप से कमलेश्वर मंदिर, अलकनंदा के किनारे केशोराय मठ, भक्तियाना गाँव के नीचे लक्ष्मीनारायण मंदिर, गोरखनाथ गुफा तथा गोला बाजार के पास कल्याणेश्वर मंदिर, पास ही में बदरीनाथ मठ, राम मंदिर, जैन मंदिर व गुरुद्वारा भी हैं। श्रीनगर से अलकनंदा पार किलकिलेश्वर मंदिर व विश्वविद्यालय कैंपस कॉलेज हैं। श्रीकोट में मेडिकल कॉलेज और बेस चिकित्सालय भी है।

कमलेश्वर मंदिर
यह क्षेत्र पुराने शहरी भाग के ऊपर होने से बाढ़ की चपेट में नहीं आया। ऋषिकेश-पौड़ी रोड क्रासिंग के बाद श्रीनगर की तरफ बाईं ओर को कमलेश्वर मंदिर जाने का रास्ता है। एक फर्लांग की दूरी पर ही प्राचीन मंदिर कमलेश्वर महादेव में स्वयंभू-लिंग के दर्शन होते हैं। केदारखंड में वर्णित है-
पुनः कदाचित भगवान्नमरूपी जनार्दनः।
पूजयामास कमलैः प्रत्यहं शत सम्मितैः।
तोतद्धवधि महाराज कमलेश्वरतां गतः।
(अध्याय 188ः88-89)
अनंतर में किसी समय जनार्दन श्री विष्णु भगवान ने राम रूप धारण कर प्रतिदिन सौ-सौ कमलों से उनकी पूजा की थी। तभी से इस लिंग का नाम कमलेश्वर प्रसिद्ध हो गया। कमलेश्वर महादेव मंदिर में प्रतिवर्ष बैकुंठ चतुर्दशी का मेला लगता है। देश के कोने-कोने से आए निःसंतान दंपत्ति इस दिन निराहार व्रत रखकर रात्रिभर जलते दिए को हाथ में रखे हुए शिव आराधना में खड़े रहते हैं। सुबह अलकनंदा में स्नान के बाद भगवान कमलेश्वर से आशीर्वाद लेते हैं। माना जाता है कि सच्ची श्रद्धा से आए दंपत्तियों की अवश्य ही मनोकामना पूर्ण होती है। अचला सप्तमी तथा महाशिवरात्रि को भी हजारों श्रद्धालु दर्शन करने आते हैं। मंदिर सालभर दर्शनों के लिए खुला रहता है।

देवलगढ़
श्रीनगर से 18 कि०मी० बुगाणी रोड पर देवलगढ़ के दर्शन होते हैं। सन् 1512 के आसपास गढ़वाल नरेश अजयपाल ने चाँदपुर गढ़ से अपनी राजधानी देवलगढ़ में ही बनाई थी। इसके कुछ समय बाद ही राजधानी श्रीनगर बसाई गई। यहाँ पर सत्यनाथ गद्दी स्थल, राजराजेश्वरी मंदिर, गौरजा मंदिर, सत्यनारायण, दत्तात्रेय मंदिर, भैंरों गुफा व प्राचीन स्मारक ‘सोमा मांडा’ आदि दर्शनीय हैं। माना जाता है कि अजयपाल ने सत्यनाथ भैरव और राजराजेश्वरी यंत्र की स्थापना की थी।

आवासीय तथा अन्य सुविधाएं- श्रीनगर में रात्रि ठहरने के लिए बाबा काली कमली धर्मशाला, कल्याणेश्वर धर्मशाला, डालमिया धर्मशाला, जैन तथा ज्वाल्पामाई धर्मशाला और पर्यटक आवास गृह, लो०नि०वि० का अतिथि गृह, विश्वविद्यालय के पास प्राची होटल, पाइन इन व बाजार में होटल मुक्कु, राजहंस, मेनका, मोती महल, सैनिक संगम, अल्पाइन, सुदर्शन कैशल आदि होटल हैं। स्टेशन से गोलाबाजार जाते हुए बीच में दाईं ओर गुरुद्वारा है। इनके अलावा श्रीनगर से आगे चुंगी के पास देवलोक, उर्वशी, अजंता, मधुबन होटल, श्रीकोट में हंस उत्तराखंड धर्मशाला, रामा होटल, क्रिस्टल कोनार्क होटल भी उचित आवासीय व्यवस्था हेतु हैं।
अन्य सुविधाओं में संयुक्त स्वास्थ्य केंद्र श्रीनगर, मेडिकल कॉलेज श्रीकोट, स्टेट बैंक, पंजाब नेशनल बैंक, पेट्रोल पंप, सुलभ शौचालय हैं। यहाँ से एक बस मार्ग पौड़ी, एक बुगाणी तथा एक कीर्तिनगर होते हुए टिहरी को जाता है। रुद्रप्रयाग मोटर मार्ग पर कलियासौड़ में सिद्धपीठ धारी देवी के दर्शन करने भी यात्री जाते हैं।

धारी देवी
श्रीनगर-रुद्रप्रयाग बस मार्ग पर 14 कि०मी० की दूरी के बाद कलियासौड़ नामक स्थान है। जैसा कि नाम से ही ज्ञात होता है कि यहाँ काली का सौड़ (तप्पड़) था। अलकनंदा में कई बार बाढ़ आई। माना जाता है कि कई वर्ष पूर्व कालीमठ से काली की प्रतिमा मंदाकिनी की बाढ़ में बहकर अलकनंदा में मिलती हुई धारी गाँव के पास आई। स्थानीय लोगों ने इसे पूरे यज्ञ विधान से अलकनंदा के तट पर यहाँ अवस्थित एक चट्टान में प्रतिष्ठित किया। काले पाषाण की वक्षस्थल तक काली की प्रतिमा लगभग डेढ़ फीट ऊँची है। धारी देवी की प्रतिमा जागृत और साक्षात् है। मान्यता है कि यह मूर्ति दिन में तीन बार रूप बदलती है। प्रातःकाल में कन्या, दोपहर में युवती और शाम को वृद्धा का रूप धारण करती है। यहाँ के पुजारी धारी गाँव के पाण्डे हैं।
श्रीनगर बांध बन जाने से 16 जून, 2013 को चट्टान सहित आधुनिक तकनीक से मूर्ति को उसी जगह पर उठाया गया और अब बांध की झील के ऊपर धारी देवी का स्थान अवस्थित है। इसी दिन जब इस प्रतिमा को अपलिफ्ट किया गया था तो केदारनाथ में चौराबाड़ी ताल टूट जाने से भयंकर आपदा आई। इस आपदा में 10 हजार से अधिक लोगों की मृत्यु हुई। कई स्थानीय लोगों का मानना था कि धारी देवी को अपने मूल स्थान से अपलिफ्ट करने से ही यह आपदा आई है। धारी देवी के दर्शनों के लिए श्रद्धालु कलियासौड़ मोटर मार्ग से लगभग 500 मीटर उतराई से या कलियासौड़ से पहले एक कच्चा मार्ग बना है जिससे छोटे वाहन जाते हैं, से भी जा सकते हैं।

– रमाकान्त बेंजवाल

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